Tuesday, October 26, 2010

किरणें और किर्चियाँ

चांदनी पर ग़ज़ल कहने वाली से मैंने कहा
"चांदनी तुम भी हो "
और - वो हंस पड़ी
उसके होठों पर बिखरी हुई
नीमजां ज़र्द किरणों को मैंने चुना
और - मैं रो पड़ा

उसने मुझसे कहा
"बोल तेरे हैं सब काँच की चूड़ियाँ
काँच की चूड़ियाँ किसको पहनाओगे?"
और - मैं हंस पड़ा
किर्चियाँ मेरे होठों से झड़ने लगीं
और - वो रो पड़ी

ज़र्द किरणों में जब किर्चियाँ मैं पिरोने लगा
वो भी रोने लगी , मैं भी रोने लगा .

~~Rashid Qaisrani~~

कनुप्रिया - आम्र-बौर का गीत

यह जो मैं कभी-कभी चरम साक्षात्कार के क्षणों में

बिलकुल जड़ और निस्पन्द हो जाती हूँ

इस का मर्म तुम समझते क्यों नहीं मेरे साँवरे!


तुम्हारी जन्म-जन्मान्तर की रहस्यमयी लीला की एकान्त संगिनी मैं

इन क्षणों में अकस्मात

तुम से पृथक नहीं हो जाती हूँ मेरे प्राण,

तुम यह क्यों नहीं समझ पाते कि लाज

सिर्फ जिस्म की नहीं होती

मन की भी होती है

एक मधुर भय

एक अनजाना संशय,

एक आग्रह भरा गोपन,

एक निर्व्याख्या वेदना, उदासी,

जो मुझे बार-बार चरम सुख के क्षणों में भी अभिभूत कर लेती है।


भय, संशय, गोपन, उदासी

ये सभी ढीठ, चंचल, सरचढ़ी सहेलियों की तरह

मुझे घेर लेती हैं,

और मैं कितना चाह कर भी तुम्हारे पास ठीक उसी समय

नहीं पहुँच पाती जब आम्र मंजरियों के नीचे

अपनी बाँसुरी में मेरा नाम भर कर तुम बुलाते हो!

उस दिन तुम उस बौर लदे आम की

झुकी डालियों से टिके कितनी देर मुझे वंशी से टेरते रहे

ढलते सूरज की उदास काँपती किरणें

तुम्हारे माथे मे मोरपंखों

से बेबस विदा माँगने लगीं -

मैं नहीं आयी


गायें कुछ क्षण तुम्हें अपनी भोली आँखों से

मुँह उठाये देखती रहीं और फिर

धीरे-धीरे नन्दगाँव की पगडण्डी पर

बिना तुम्हारे अपने-आप मुड़ गयीं -

मैं नहीं आयी


यमुना के घाट पर

मछुओं ने अपनी नावें बाँध दीं

और कन्धों पर पतवारें रख चले गये -

मैं नहीं आयी


तुम ने वंशी होठों से हटा ली थी

और उदास, मौन, तुम आम्र-वृक्ष की जड़ों से टिक कर बैठ गये थे

और बैठे रहे, बैठे रहे, बैठे रहे

मैं नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी

तुम अन्त में उठे

एक झुकी डाल पर खिला एक बौर तुम ने तोड़ा

और धीरे-धीरे चल दिये

अनमने तुम्हारे पाँव पगडण्डी पर चल रहे थे

पर जानते हो तुम्हारे अनजान में ही तुम्हारी उँगलियाँ क्या कर रही थीं!


वे उस आम्र मंजरी को चूर-चूर कर

श्यामल वनघासों में बिछी उस माँग-सी उजली पगडण्डी पर बिखेर रही थीं .....

यह तुमने क्या किया प्रिय!

क्या अपने अनजाने में ही

उस आम के बौर से मेरी क्वाँरी उजली पवित्र माँग भर रहे थे साँवरे?

पर मुझे देखो कि मैं उस समय भी तो माथा नीचा कर

इस अलौकिक सुहाग से प्रदीप्त हो कर

माथे पर पल्ला डाल कर

झुक कर तुम्हारी चरणधूलि ले कर

तुम्हें प्रणाम करने -

नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी!


*
o

पर मेरे प्राण

यह क्यों भूल जाते हो कि मैं वही

बावली लड़की हूँ न जो - कदम्ब के नीचे बैठ कर

जब तुम पोई की जंगली लतरों के पके फलों को

तोड़ कर, मसल कर, उन की लाली से मेरे पाँव को

महावर रचने के लिए अपनी गोद में रखते हो

तो मैं लाज से धनुष की तरह दोहरी हो जाती हूँ

अपनी दोनों बाँहों में अपने धुटने कस

मुँह फेर कर निश्चल बैठ जाती हूँ

पर शाम को जब घर आती हूँ तो

निभॄत एकान्त में दीपक के मन्द आलोक में

अपनी उन्हीं चरणों को

अपलक निहारती हूँ

बावली-सी उनहें बार-बार प्यार करती हूँ

जल्दी-जल्दी में अधबनी महावर की रेखाओं को

चारों ओर देख कर धीमे-से

चूम लेती हूँ।


*
o
+

रात गहरा आयी है

और तुम चले गये हो

और मैं कितनी देर तक बाँह से

उसी आम्र डाली को घेरे चुपचाप रोती रही हूँ

जिस पर टिक कर तुम मेरी प्रतीक्षा करते हो


और मैं लौट रही हूँ,

हताश, और निष्फल

और ये आम के बौर के कण-कण

मेरे पाँव मे बुरी तरह साल रहे हैं।

पर तुम्हें यह कौन बतायेगा साँवरे

कि देर ही में सही

पर मैं तुम्हारे पुकारने पर आ तो गयी

और माँग-सी उजली पगडण्डी पर बिखरे

ये मंजरी-कण भी अगर मेरे चरणों में गड़ते हैं तो

इसीलिए न कि इतना लम्बा रास्ता

कितनी जल्दी-जल्दी पार कर मुझे आना पड़ा है

और काँटों और काँकरियों से

मेरे पाँव किस बुरी तरह घायल हो गये हैं!

यह कैसे बताऊँ तुम्हें

कि चरम साक्षात्कार के ये अनूठे क्षण भी

जो कभी-कभी मेरे हाथ से छूट जाते हैं

तुम्हारी मर्म-पुकार जो कभी-कभी मैं नहीं सुन पाती

तुम्हारी भेंट का अर्थ जो नहीं समझ पाती

तो मेरे साँवरे -

लाज मन की भी होती है

एक अज्ञात भय,

अपरिचित संशय,

आग्रह भरा गोपन,

और सुख के क्षण

में भी घिर आने वाली निर्व्याख्या उदासी -


फिर भी उसे चीर कर

देर में ही आऊँगी प्राण,

तो क्या तुम मुझे अपनी लम्बी

चन्दन-बाहों में भर कर बेसुध नहीं कर दोगे?

~~~ धर्मवीर भारती ~~~

टूटा पहिया

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मैं

रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ

लेकिन मुझे फेंको मत !

क्या जाने कब

इस दुरूह चक्रव्यूह में

अक्षौहिणी सेनाओं को चुनौती देता हुआ

कोई दुस्साहसी अभिमन्यु आकर घिर जाय !

अपने पक्ष को असत्य जानते हुए भी

बड़े-बड़े महारथी

अकेली निहत्थी आवाज़ को

अपने ब्रह्मास्त्रों से कुचल देना चाहें

तब मैं

रथ का टूटा हुआ पहिया

उसके हाथों में

ब्रह्मास्त्रों से लोहा ले सकता हूँ !

मैं रथ का टूटा पहिया हूँ

लेकिन मुझे फेंको मत

इतिहासों की सामूहिक गति

सहसा झूठी पड़ जाने पर
क्या जाने

सच्चाई टूटे हुए पहियों का आश्रय ले !

~धर्मवीर भारती

Poems from Kunwar Narayan

Bachche ki khushi

Ek saaf-suthare chaukaur kagaz ki tarah
utthakar zindagi ko pyar se
sochta hoon is par kuch likhun
Phir
use koi mor dekar
kai tahon mein baantkar
ek naav banata hoon
aur behtay paani par chupchaap chorkar
us sey alag ho jaata hoon
bahaav main wah
kagaz nahin
ek bachche ki khushi hai.

Ek Ajeeb Din

Aaj saare din bahar ghoomta raha
aur koi durghatana nahin huyi
aaj saare din logon se milta raha
aur kahin apmaanit nahin hua
aaj saare din sach bolta raha
aur kisi ne bura nahin maana
aaj sabka yakeen kiya aur kahin dhokha nahin khaaya
aur sabse bada chamatkar to yeh
ki ghar lautkar maine kisi aur ko nahin
apne ko hi lauta hua paaya.

Laapata ka huliya


Rang gehuwaan dhang khetihar
uske maathe par chot ka nishaan
kad paanch foot se kam nahin
aisi baat karta ki use koi gham nahin
tutlata hai
umr poocho to hazaaron saal se kuch
zyada batlaata hai
dekhne main paagal sa lagta hai
kai baar oonchaiyon se girkar
toot chuka hai
isiliye dekhne par juda hua lagega
Hindustan ke nakshe ki tarah.

~ ~ ~
उँगलियों को तराश दूं, फिर भी
आदतन तुम्हारा नाम लिखेंगी 
-Parveen Shakir

So it came back, like a torrent rising from within, not letting her breathe, not letting her live. She thought she could be the sea, the mas...